मधुरस जब छलकता था
जब मधुमास बुलाता था,
कहाँ रहे जब ये उपवन
हरा भरा लहराता था|
कहाँ थे जब हर डाली
झुकी थी यौवन भार से,
हर आहट को सुन थे उठते
आतुर ह्रदय में ज्वार से|
पंथ जोहते थे नयन मेरे
सजा कर वेदी प्रणय की,
कहाँ थे तब तुम बोलो
ऋतु थी जब प्रलय की |
अब सर्वस्व मुरझाया जब
पड़ा यहाँ है चरण तुम्हारा,
कहाँ से लाऊँ जीवन बोलो
बढ़ करे जो वलय तुम्हारा|
न प्रिये ! नहीं चाहिए
करुण तुम्हारा ये उपकार,
क्या करूंगी करूणा लेकर
पाया ही न जब अधिकार |
ये कविता लगभग १३ वर्ष पहले कॉलेज पत्रिका के लिए लिखी गयी थी।
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