शनिवार, 20 सितंबर 2008

गर्म रेत

दिन भर वह आदमी
चलता रहता है
रेत पर |
झुलसते पैरों से
चलता रहता है गर्म रेत पर|
और
शाम होते गिर जाता है
उसी गर्म रेत पर |

रात को चाँद देखता है
और सोचता है
काश! वह बिछौना होता!
और उन रातों
जिनमें चाँद आना भूल जाता है
रेत में बदल जाता है
वह आदमी|