सोमवार, 18 अप्रैल 2011

दुश्मन

किसने रखा था ये ख्वाब
मेरी हथेलियों पर !

वो ख्वाब जो दिन रात
मुझसे उलझता था
सनाट्टे में शोर करता था
भीड़ में मुझसे लड़ता था!

वो खवाब
जो खींचता था मेरे क़दमों को|
और मेरी बेड़ियों पर हँसता था|

ये ख्वाब किसने रखा था?
उस शख्स को बुलाओ!


दोस्त नहीं दुश्मन है ये ख्वाब !

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