शनिवार, 20 सितंबर 2008

गर्म रेत

दिन भर वह आदमी
चलता रहता है
रेत पर |
झुलसते पैरों से
चलता रहता है गर्म रेत पर|
और
शाम होते गिर जाता है
उसी गर्म रेत पर |

रात को चाँद देखता है
और सोचता है
काश! वह बिछौना होता!
और उन रातों
जिनमें चाँद आना भूल जाता है
रेत में बदल जाता है
वह आदमी|

5 टिप्‍पणियां:

Shastri JC Philip ने कहा…

सजीव एवं मार्मिक वर्णन!!

-- शास्त्री

-- हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाजगत में विकास तभी आयगा जब हम एक परिवार के रूप में कार्य करें. अत: कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर अन्य चिट्ठाकारों को जरूर प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)

Shastri JC Philip ने कहा…

एक अनुरोध -- कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन का झंझट हटा दें. इससे आप जितना सोचते हैं उतना फायदा नहीं होता है, बल्कि समर्पित पाठकों/टिप्पणीकारों को अनावश्यक परेशानी होती है. हिन्दी के वरिष्ठ चिट्ठाकारों में कोई भी वर्ड वेरिफिकेशन का प्रयोग नहीं करता है, जो इस बात का सूचक है कि यह एक जरूरी बात नहीं है.

वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिये निम्न कार्य करें: ब्लागस्पाट के अंदर जाकर --

Dahboard --> Setting --> Comments -->Show word verification for comments?

Select "No" and save!!

बस हो गया काम !!

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

दिन भर वह आदमी
चलता रहता है
रेत पर |
झुलसते पैरों से
चलता रहता है गर्म रेत पर|
और
शाम होते गिर जाता है
उसी गर्म रेत पर |
सुंदर विचार स्वागत है हिन्दी ब्लॉग जगत में निरंतरता बनाए रखें मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें

ज्ञान ने कहा…

उन रातों
जिनमें चाँद आना भूल जाता है
रेत में बदल जाता है
वह आदमी|

वाह!
लिखते रहें

pritima vats ने कहा…

अच्छी कविता है। लगता है परेशानी को बहुत नजदीक से देखा है आपने।