Arun Pal Singh
शनिवार, 20 सितंबर 2008
गर्म रेत
दिन भर वह आदमी
चलता रहता है
रेत पर |
झुलसते पैरों से
चलता रहता है गर्म रेत पर|
और
शाम होते गिर जाता है
उसी गर्म रेत पर |
रात को चाँद देखता है
और सोचता है
काश! वह बिछौना होता!
और उन रातों
जिनमें चाँद आना भूल जाता है
रेत में बदल जाता है
वह आदमी|
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